शनिवार, 18 सितंबर 2021

अफगानिस्तान वैसे तो अब तक बड़े-बड़े साम्राज्यों की कब्रगाह साबित होता आया है- अंजू अग्निहोत्री

 


हरि सिंह नलवा ने दो सदी पहले अफगानों पर कसी थी नकेल



अफगानिस्तान वैसे तो अब तक बड़े-बड़े साम्राज्यों की कब्रगाह साबित होता आया है। अपनी ऊबड़ खाबड़ टीलानुमा जमीन और वहां के कबीलाई बाशिंदों की आक्रमणकारी प्रवृत्ति व उनके बीच अंदरूनी संघर्ष के चलते दुनियाभर की ताकतवर शक्तियां कभी इस देश पर पूरा नियंत्रण नहीं कर पाई। और यही वजह है कि उन्हें अपने लहूलुहान सैनिकों के साथ अफरा-तफरी में वहां से जान बचाकर भागना पड़ा।
हालिया दौर में सोवियत संघ ने भी वहां 1980 तक अपनी फौज जमाए रखी और अमेरिका ने भी 9/11 के हमले के उपरांत 20 साल पहले अफगानिस्तान में अपनी फौज भेजी थी लेकिन दशकों तक कोई नतीजा न निकलते देख आखिरकार उन्हें अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। लेकिन आज से करीब दो सदी पूर्व वहां हरि सिंह नलवा नामक एक सिख योद्धा पटल पर उभरे जिन्होंने वहां इन विद्रोही प्रवृत्ति के लोगों की नाक में नकेल डाल दी और अपने अद्भुत युद्ध कौशल की बदौलत उसने अफगानिस्तान में ऐसे सिख योद्धा की साख बनाई जिससे अफगानी आज भी खौफजदा रहते हैं।



हरि सिंह नलवा दरअसल, महाराजा रणजीत सिंह की सिख खालसा फोर्स की अग्रिम पंक्ति का सबसे विश्वसनीय कमांडर थे। उन्होेंने 1800 की शुरुआत में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में कदम रखा था। वह कश्मीर, हजारा और पेशावर के गवर्नर रहे। उन्होंने न सिर्फ तमाम अफगानों को शिकस्त दी और वहां सीमा के भीतर तमाम धर्मों पर नियंत्रण रखा, बल्कि अफगानियों को खैबर के रास्ते पंजाब में घुसने से भी रोका जो 1000 ई. से 19वीं सदी के शुरू तक विदेशी आक्रमणकारियों के लिए भारत में घुसपैठ का मुख्य रास्ता था। जीएनडीयू- अमृतसर के पूर्व कुलपति एसपी सिंह ने बताया कि अफगानिस्तान की जमीन को अजेय माना जाता था और हरि सिंह नलवा, जिन्होंने अफगानिस्तानियों की नाक में नकेल डाली थी, ने ही वहां विख्यात सिख योद्धा का नाम अर्जित किया। उनके शब्दों में, ‘अफगान दंत कथाओं में इस बात का जिक्र आता है कि जब भी कोई उद्दंड बच्चा वहां अपनी मां को ज्यादा तंग किया करता तो वह उसे हरि सिंह नलवा का नाम लेकर डरा दिया करती थीं। वह उन्हें कहती थीं कि बैठ जा वरना नलवा आ जाएगा और बच्चा भी तमाम शरारतें छोड़ आराम से बैठ जाता।’

उन्होंने आगे कहा, जब अफगान बार-बार पंजाब और दिल्ली का रुख करते तो महाराजा रणजीत सिंह ने अपना साम्राज्य सुरक्षित करने का फैसला किया और उन्होंने दो किस्म की सेनाएं तैयार करार्इं- एक में फ्रांस, जर्मनी, इटली, रशिया आदि के सैनिक भर्ती कराए गए जो उस समय के तमाम आधुनिक हथियारों और गोला-बारूद आदि से लैस थे, जबकि दूसरी सेना हरि सिंह नलवा के ही नेतृत्व में बनाई गई थी जो असल में महाराजा रणजीत सिंह के सबसे बड़े योद्धा थे और जिन्होंने अफगानिस्तान की ही प्रजाति हजारा के 1000 लड़कों को को हराया था जो संख्या में सिख सेना से तीन गुना कम थी। यही वजह है कि वर्ष 2013 में भारत सरकार ने उनकी बहादुरी और युद्ध कला को समर्पित डाक टिकट भी जारी की थी।

नलवा का नाम अफगानों के दिलों में सबसे ज्यादा खौफ पैदा करने वाला नाम कैसे बना, इसके जवाब में विख्यात इतिहासविद् सतीश के. कपूर ने कहा, ‘हरि सिंह नलवा ने अफगानों के खिलाफ कई युद्धों में हिस्सा लिया था और यही वजह है कि उनके कब्जे वाले कई इलाके अफगानों के हाथों से निकलते गए। यह सभी युद्ध नलवा के ही नेतृत्व में लड़े गए। जैसे 1807 में उन्होंने कसूर की जंग लड़ी जब वह मात्र 16 साल के थे और उन्होंने ही कुतुबद्दीन खान को करारी शिकस्त दी। 1813 में अटोक की जंग में नलवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर अजीम खान और उसके भाई दोस्त महोम्मद खान को हराया।

इन्हीं जंगों ने अफगानों के दिल में नलवा का ऐसा खौफ भर दिया कि वहां माताएं अपने उद्दंड बच्चों को उनका नाम लेकर डराने लगीं।’ उन्होंने बताया कि अफगान-पंजाब सीमा पर नजर रखने के लिए ही नलवा पेशावर में डटे रहे। इतिहासकार बताते हैं कि जमरूद की जंग में, जहां हरि सिंह नलवा की जान चली गई थी, दोस्त मोहम्मद खान ने अपने पांच बेटों के साथ सिख सेना के खिलाफ जंग में हिस्सा लिया था और हथियारों आदि की सीमित आपूर्ति सहित उसमें करीब 600 लड़ाके शामिल थे। जब भी अफगान लड़ाकों को पता चलता कि नलवा आ गया है तो वह भौंचक्के रह जाते और जंग के मैदान से भाग खड़े होते। लेकिन अपनी मौत से पहले घायलावस्था में भी उन्होंने अपनी सेना से कह रखा था कि जब तक लाहौर से सेना नहीं आ जाती, तब तक उसकी मौत की खबर न बताई जाए। बताया जाता है कि एक हफ्ते तक सिख सेना नलवा का सिर ऊपर उठाकर दुश्मन को दिखाती रही और तब तक लाहौर से अतिरिक्त सेना पहुंच गई जिसके बाद अफगान वहां से मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।

हरि सिंह नलवा को महाराजा रणजीत सिंह के पोते नव निहाल सिंह की शादी में लाहौर जाना था, लेकिन वह वहां नहीं जा पाए क्योंकि वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें शक था कि यदि वह वहां से गए तो दोस्त मोहम्मद खां मौके का फायदा उठाकर जमरूद पर आक्रमण कर देगा। क्योंकि हालांकि उसे भी शादी में न्यौता दिया गया था लेकिन वह वहां गया नहीं था। इतिहासकारों का मानना है कि यदि महाराजा रणजीत सिंह और उनके कमांडर हरि सिंह नलवा ने पेशावर और नॉर्थ-वैस्ट फ्रंटियर नहीं जीता होता, जो अब पाकिस्तान में है तो यह इलाका अफगानिस्तान में होता और फिर अफगानों की पंजाब और दिल्ली में घुसपैठ रोकना भी असंभव था।

यूं पड़ा नलवा नाम
हरि सिंह का जन्म 1791 में गुजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। उनके नाम के साथ नलवा उपनाम तब जुड़ा जब उन्होंने युवावस्था में एक बाघ का शिकार कर दिया था। उन्हें बाघ-मार भी कहा जाता है। बाघ के पलक झपकते ही हमला कर दिए जाने से उन्हें तलवार निकालने का भी मौका नहीं मिला तो उन्होंने बाघ का जबड़ा पकड़ लिया और धक्का देकर पीछे गिरा दिया। और फिर अपनी तलवार निकाली और बाघ को मार गिराया। तब महाराजा रणजीत सिंह को इस वाकये का पता चला तो उन्होंने उसे बुलाया और कहा, ‘वाह, मेरे राजा नल वाह।’ नल दरअसल, महाभारतकाल में एक राजा हुए और वह भी अपनी बहादुरी के लिए ही जाने जाते हैं। उनके पिता गुरदयाल सिंह की 1798 में तब मृत्यु हो गई थी जब हरि मात्र 7 साल के थे और फिर उनके मामा ने ही उन्हें पाला।

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

संस्कार...

कोई भी लड़की की सुदंरता उसके चेहरे से ज्यादा दिल की होती है।

अशोक भाई ने घर में पैर रखा.... ‘सुनते हो ?'

 आवाज सुनी अशोक भाई कि पत्नी हाथ में पानी का ग्लास लेकर बाहर आयी.

"अपनी सोनल का रिश्ता आया है,

अच्छा ला ईज्जतदार सुखी परिवार है,

लडके का नाम युवराज है.

बैंक  मे काम करता है.

 बस सोनल हाँ कह दे तो सगाई कर देते है."

 सोनल उनकी एका एक लडकी थी..

 घर में हमेशा आनंद का वातावरण रहता था.

 हाँ, कभी अशोक भाई सिगरेट

 पान मसाले के कारण

 उनकी पत्नी और सोनल के साथ बोल चाल हो जाती लेकिन

 अशोक भाई मजाक में  निकाल देते.

 सोनल खूब समझदार और संस्कारी थी.

 S.S.C पास करके टयूशन,सिलाई काम करके पापा की मदद करने की कोशिश करती,

 अब तो सोनल ग्रज्येएट हो गई थी

 और नौकरी भी करती थी

 लेकिन अशोक भाई उसकी पगार में से एक रुपिया भी नही लेते थे...

 और रोज कहते ‘बेटा यह पगार तेरे पास रख तेरे भविष्य में तेरे काम आयेगी.’

 दोनो घरो की सहमति से सोनल और

 युवराज की सगाई कर दी गई और शादी का मुर्हत भी निकलवा दिया.

 अब शादी के 15 दिन और बाकी थे.

 अशोक भाई ने सोनल को पास मेँ बिठाया और कहा

 'बेटा तेरे ससुर से मेरी बात हुई...उन्होने कहा दहेज में कुछ नही लेंगे, ना रुपये, ना गहने और ना ही कोई चीज.

 तो बेटा तेरे शादी के लिए मैंनें कुछ रुपये जमा किए..

 यह दो लाख रुपये में तुझे देता हु...तेरे भविष्य में काम आयेगे, तू अपने खाते में जमा करवा देना.'

 ‘ओ के पापा - सोनल ने छोटा सा जवाब देकर अपने रुम में चली गई.

 समय को जाते कहा देर लगती है ?

 शुभ दिन बारात आगंन आयी,

 पंडित ने चवरी में विवाह विधि शुरु की

 फेरे फिरने का समय आया....

 कोयल जैसे टुहुकी हो एसे सोनल दो शब्दो में बोली

 ‘रुको पडिण्त जी

 मुझे आप सब की मोजूदगी में मेरे पापा के साथ बात करनी है,’

 “पापा आप ने मुझे लाड़ प्यार से बड़ा किया,

 पढाया, लिखाया खूब प्रेम दिया इसका कर्ज तो चुका सकती नही...

लेकिन युवराज और मेरे ससुर जी की सहमति से आपने दिया दो लाख रुपये का चेक में वापस देती हूँ...

 इन रुपयो से मेरी शादी के लिए किये हुए उधार वापस दे देना

 और दूसरा चेक तीन लाख जो मैंने अपनी पगार में से बचत की है...

 जब आप रिटायर होगें तब आपके काम आयेगें,

 मैं नही चाहती कि आप को बुढ़ापे में आपको किसी के आगे हाथ फैलाना पडे !

 अगर में आपका लडका होता तो इतना तो करता ना ? !!! "

 वहा पर सभी की नजर सोनल पर थी...

 “पापा अब मे आपसे में जो दहेज में मांगू वो दोगे ?"

 अशोक भाई भारी आवाज में -"हाँ बेटा", इतना ही बोल सके.

 "तो पापा मुझे वचन दो

 आज के बाद सिगरेट के हाथ नही लगाओगे....

 तबांकू, पान-मसाले का व्यसन आज से छोड दोगे.

 सब की मोजुदगी में  दहेज में बस इतना ही मांगती हूँ"

 लड़की का बाप मना कैसे करता ?

 शादी मे लड़की की विदाई समय कन्या पक्ष को रोते देखा होगा लेकिन

 आज तो बारातियों कि आँखो में आँसुओ कि धारा निकल चुकी...

 मैं दूर से सोनल को लक्ष्मी रुप मे देख रहा था....

 501 रुपये का कवर में अपनी जेब से नही निकाल पा रहा था....

 साक्षात लक्ष्मी को मैं कैसे लक्ष्मी दूँ ?? 

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

आतंकी ...जितेन्द्र कुमार गुप्ता




"अंतर का दायरा "
“माँ, नींद नहीं आ रही। कहानी कहो न।" पांच  साल के सोनू ने बिस्तर पर लेटे -लेटे माँ,मधु से मनुहार की। आतँकियों से मुठभेड़ में शहीद हुए लेफ्टीनेंट अरूण की पत्नी थी मधु। पति की मृत्यु के बाद मिले रूपये घर बनवाने में खत्म हो गये। घर में बूढ़े सास-ससुर भी थे । बस, पेंशन पर  किसी तरह गुजारा हो रहा था। नन्हा सोनू हालात रोज देखता और जल्दी से जल्दी बड़ा होकर माँ के लिये , दादा-दादी के लिये कुछ करना चाहता था। बेटे को पढ़ा- लिखा कर फौजी बनाना ही सपना था इसलिये रोज पति की बहादुरी के किस्से सुनाती और रोज हंसकर पूछती,"मेरा राजा बेटा क्या बनेगा?" पहले तो  सोनू झट से ,कभी फौजी,कभी डॉक्टर,तो कभी-कभी पायलट कह देता था।
आज भी सुबह जब मधु ने हंसकर पूछा," मेरा राजा बेटा क्या बनेगा ?" 
"सोचूंगा।" सोनू का जवाब अचकचा गया था  मधु को। मन में कुछ खटक रहा था। 
अचानक सोनू उठकर बैठ गया।
"मैने सोच लिया माँ। क्या बनना है बड़े होकर।  खूब पैसे कमाऊंगा। 
फिर हम सब खूब आराम से रहेंगे।" सोनू की आँखों में चमक थी।
"अच्छा वो कैसे?" 
"आतंकी बनकर सरेन्डर कर दूंगा।"
मधु सन्न थी और सोनू की निगाह अटकी थी, अखबार में छपी न्यूज पर..
सीमा पर हुए शहीद की शहादत को दस लाख  और सरेन्डर करने वाले आतंकी को दो करोड़...। 
अंतर का दायरा बहुत बड़ा था।
-जितेन्द्र कुमार गुप्ता

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

फ्राड

लघु कथा
फ्राड कौन


यह एक दिलचस्प वाकया है।
एक फाइनेंस कंपनी से फोन आता है कि 4 लाख का लोन आप ले सकते हैं। मैंने कहा घर आ जाओ बात करते हैं। अगले दिन सुबह 10 बजे दो युवक आ गए। सबकुछ ठीक था, लेकिन मामला मेरे पेशे पर अटक गया।
- उसने कहा की हम पत्रकार को लोन नहीं देते हैं।
- क्यों भाई? मैंने पूछा। 
- हम पुलिस और वकील को भी नहीं लोन नहीं देते हैं। उन्होंने कहा।
- ऐसा क्यों ? मैंने फिर पूछा।
- कंपनी की पॉलिसी है। दोनों एक साथ बोले। वे भी मुस्करा रहे थे और मैं भी।
- अच्छा है। फोन करने से पहले पेशा पूछ लिया करो भाई। या झांसा देने की फिराक में रहते हो। सूदखोरों के चंगुल में फंसना कौन चाहता है? मुझे तो यकीन नहीं था कि तुम लोग आओगे। आ भी गए तो बात नहीं बनेगी यह भी यकीन था। मैंने थोड़ा रोष में कहा।
- क्यों? अब उन्होंने सवाल किया।
- क्योंकि हमसे फ्राड करना आसान नहीं है प्यारे....। मैंने मुस्कुरा दिया।
- वो तो है...कहते हुए वे दोनों चले गए।
हालांकि इस बीच वह चाय पी चुके थे।
अच्छी चाय पिलाने के लिए श्रीमती जी की तारीफ भी की....।
--
- ओमप्रकाश तिवारी
अमर उजाला, रोहतक

बुधवार, 20 जनवरी 2021

वास्तव मे माता ही है गाय...चेतन ठकरार




एक दिन मंगलवार की सुबह वॉक करके रोड़ पर बैठा हुआ था,हल्की हवा और सुबह का सुहाना मौसम बहुत ही अच्छा लग रहा था,तभी वहाँ एक कार आकर रूकी, और उसमें से एक वृद्ध उतरे,अमीरी उसके लिबाज और व्यक्तित्व दोनों बयां कर रहे थे। वे एक पॉलीथिन बैग ले कर मुझसे कुछेक दूर ही एक सीमेंट के चबूतरे परबैठ गये.

पॉलीथिन चबूतरे पर उंडेल दी,उसमे गुड़ भरा हुआ था,अब उन्होने आओ आओ करके पास ने ही खड़ी बैठी गायो को बुलाया,सभी गाय पलक झपकते ही उन बुजुर्ग के इर्द गिर्द ठीक ऐसे ही आ गई जैसे कई महीनो बाद बच्चे अपने बाप को घेर लेते हैं.

कुछ को उठाकर खिला रहे थे तो कुछ स्वयम् खा रही थी,वे बड़े प्रेम से उनके सिर पर हाथ फेर रहे थे।कुछ ही देर में गाय अधिकांश गुड़ खाकर चली गई,इसके बाद जो हुआ वो वो वाक्या हैं जिसे मैं ज़िन्दगी भर नहीं भुला सकता.

हुआ यूँ की गायो के खाने के बाद जो गुड़ बच गया था वो बुजुर्ग उन टुकड़ो को उठा उठा कर खाने लगे,मैं उनकी इस क्रिया से अचंभित हुआ पर उन्होंने बिना किसी परवाह के कई टुकड़े खाये और अपनी गाडी की और चल पड़े।

मैं दौड़कर उनके नज़दीक पहुँचा और बोला "अंकल जी क्षमा चाहता हूँ पर अभी जो हुआ उससे मेरा दिमाग घूम गया क्या आप मेरी जिज्ञाषा शांत करेंगे की आप इतने अमीर होकर भी गाय का झूँठा गुड क्यों खाया ??"

उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी उन्होंने खिड़की वापस बंद की और मेरे कंधे पर हाथ रख वापस सीमेंट के चबूतरे पर आ बैठे,और बोले "ये जो तुम गुड़ के झूँठे टुकड़े देख रहे हो ना बेटे मुझे इनसे स्वादिष्ट आज तक कुछ नहीं लगता।जब भी मुझे वक़्त मिलता हैं मैं अक्सर इसी जगह आकर अपनी आत्मा में इस गुड की मिठास घोलता हूँ।"

"मैं अब भी नहीं समझा अंकल जी आखिर ऐसा क्या हैं इस गुड में ???"

वे बोले "ये बात आज से कोई 40 साल पहले की हैं उस वक़्त मैं 22 साल का था घर में जबरदस्त आंतरिक कलह के कारण मैं घर से भाग आया था,परन्तू दुर्भाग्य वश ट्रेन में कोई मेरा सारा सामान और पैसे चुरा ले गया।

इस अजनबी शहर में मेरा कोई नहीं था,भीषण गर्मी में खाली जेब के दो दिन भूखे रहकर इधर से उधर भटकता रहा,और शाम को जब भूख मुझे निगलने को आतुर थी तब इसी जगह ऐसी ही एक गाय को एक महानुभाव गुड़ डालकर गया,यहाँ एक पीपल का पेड़ हुआ करता था तब चबूतरा नहीं था, मैं उसी पेड़ की जड़ो पर बैठा भूख से बेहाल हो रहा था, मैंने देखा की गाय की गाय ने गुड़ छुआ तक नहीं और उठ कर चली गई, मैं कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़सोचता रहा और फिर मैंने वो सारा गुड़ उठा लिया और खा लिया।मेरी मृतप्रायः आत्मा में प्राण आ गये।

मैं उसी पेड़ की जड़ो में रात भर पड़ा रहा, सुबह जब मेरी आँख खुली तो काफ़ी रौशनी हो चुकी थी, मैं नित्यकर्मो से फारिक हो किसी काम की तलास में फिर सारा दिन भटकता रहा पर दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था, एक और थकान भरे दिन ने मुझे वापस उसी जगह निराश भूखा खाली हाथ लौटा दिया।

शाम ढल रही थी, कल और आज में कुछ भी तो नहीं बदला था, वही पीपल,वही भूखा मैं और वही गाय।कुछ ही देर में वहाँ वही कल वाले सज्जन आये और कुछेक गुड़ की डलिया गाय को डालकर चलते बने,गाय उठी और बिना गुड़ खाये चली गई, मुझे अज़ीब लगा परन्तू मैं बेबस था सो आज फिर गुड खा लिया मैंने और वही सो गया,सुबह काम तलासने निकल गया,आज शायद दुर्भाग्य की चादर मेरे सर पे नहीं थी सो एक ढ़ाबे पे पर मुझे झूँठे बर्तन धोने का काम मिल गया।

कुछ दिन बाद जब मालिक ने मुझे पहली पगार दी तो मैंने 1 किलो गुड़ख़रीदा और किसी दिव्य शक्ति के वशीभूत 7 km पैदल चलकर उसी पीपल के पेड़ के नीचे आया नज़र दौड़ाई तो गाय भी दिख गई,मैंने सारा गुड़ उस गाय को डाल दिया,इस बार मैं अपने जीवन में सबसे ज्यादा चौंका क्योकि गाय सारा गुड़ खा गई।

जिसका मतलब साफ़ था की गाय ने 2 दिन जानबूझ कर मेरे लिये गुड़ छोड़ा था, मेरा हृदय भर उठा उस ममतामई स्वरुप की ममता देखकर, मैं रोता हुआ ढ़ाबे पे पहुँचा और बहुत सोचता रहा। फिर एक दिन मुझे एक फर्म में नौकरी मिल गई, दिन बे दिन मैं उन्नति और तरक्की के शिखर चढ़ता गया, शादी हुई बच्चे हुये आज मैं खुद की फर्म का मालिक हूँ, जीवन की इस लंबी यात्रा में मैंने कभी भी उस गाय माता को नहीं भुलाया...।

मैं अक्सर यहाँ आता हूँ और इन गायो को गुड़ डालकर इनका झूँठा गुड़ खाता हूँ, मैं लाखो रूपए गौ शालाओं में चंदा देता हूँ, परन्तू मेरी मृग तृष्णा यही आकर मिटती हैं बेटे।"

मैं देख रहा था वे बहुत भावुक हो चले थे, "समझ गये अब तो तुम", मैंने सिर हाँ में हिलाया, वे चल पड़े, गाडी स्टार्ट हुई और निकल गई।

मैं उठा उन्ही टुकड़ो में से एक टुकड़ा उठाया मुँह में डाला सचमुच वो कोई साधारण गुड़ नहीं था उसमे कोई दिव्य मिठास थी जो जीभ के साथ आत्मा को भी मीठा कर गई।

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

टॉप स्टोरी ....पक्षियों सी बोली, घोंसलों से घर

 अफ्रीकी देश तंजानिया अनोखी आदिम जनजातियों की मातृभूमि रही है और उन्हीं में से एक है पाषाण कालीन शिकारी जनजाति- हडजा।   

 हडजा समुदाय की जिसका सिर्फ इतिहास पाषाण युग से नहीं चला आ रहा बल्कि यहां की परंपराएं आज भी उतनी ही प्राचीन हैं। हडजा लोग अपना घर गुफाओं और पठारी इलाकों में ठीक उसी तरह बनाते हैं जैसे कोई पक्षी अपना घोंसला बनाता है। ये लोग लाठी और टहनियों को एक-दूसरे से बुनकर अपने झोपड़े का निर्माण करते हैं जो दूर से देखने पर जमीन पर पड़े किसी विशालकाय घोंसले के जैसे ही लगते हैं। 

पक्षियों सी बोली, घोंसलों से घर...

कालीन परिस्थितियों में ही अपने आप को समेटे हुए निवास कर रहे हैं। पुरातत्वविदों का मानना है कि हडजा लोग पाषाण युग के समय से ही अपने उसी परिवेश में आज तक रह रहे हैं और वैसा ही व्यवहार भी कर रहे हैं। यहां तक कि ये लोग एक-दूसरे से बातचीत के लिए किसी भाषा का नहीं बल्कि मुंह में अपनी जीभ से स्मैकिंग या पॉपिंग जैसी ध्वनि के जरिए सिटी जैसी आवाज निकालते हैं। होठों से निकली इसी तरह की आवाज के जरिए ये अपने समुदाय के सदस्यो से संवाद स्थापित करते हैं। ये लोग न तो बोलना जानते हैं, न पढ़ना-लिखना। मुंह से निकली सीटी जैसी आवाज की विविधता से ही ये लोग अपने मनोभावों को एक-दूसरे को जाहिर करते हैं।


ऐसे ही चली आ रही परंपरा.....

भाषा के अभाव में हडजा लोगों का कोई लिखित इतिहास मौजूद नहीं है। वे एक पीढ़ी से अपनी दूसरी पीढ़ी तक अपने इतिहास को अपनी खुद की सीटी बजाने वाली भाषा 'क्लिकिंग' के जरिए ही पहुंचाते हैं। क्लिकिंग भाषा दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है जो सिर्फ इस समुदाय में सीमित है। हडजा लोग ना किसी कैलेंडर का उपयोग करते हैं और ना ही किसी घड़ी का। ये लोग आज भी सूर्य और चन्द्रमा की गतिविधियों से अपने समय का निर्धारण करते हैं।



हडजा 10 हजार साल पुरानी सभ्यता के साथ ही जी रहे हैं। ये धनुष और तीर से बंदर, लंगूर, पक्षी, हिरण, मृग और भैंसों का शिकार करते हैं और समूह में रहते हैं। हडजा धरती पर सबसे ज्यादा समय तक शिकार पर जीवित रहने वाली बची हुई जनजातियों में से एक है। हडजा लोगों के हर दिन के पांच घंटे शिकार में ही बीतते हैं। इसके बाद समुदाय के वयस्क पुरुष नशे में अपना समय व्यतीत करते हैं। हडजा जनजाति के लोग अपने पछियों के घोंसले जैसे झोपड़े में नौ-दस घंटे तक एक ही मुद्रा में आराम करते हैं।

कच्चा मांस खाता है ये शिकारी समुदाय

पिछले हजारों सालों में उनके जीवन के तरीके में कोई भी बदलाव नहीं आया है। वे अपने दिन की शुरुआत शिकार करने से शुरू करते हैं और शिकार के लिए एक जगह पर कुछ हफ्तों के लिए अपना शिविर बनाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। हडजा लोग 5 या 6 साल पहले तक कच्चा मांस ही खाया करते थे। हालांकि, अब जाकर ये लोग एक या दो मिनट के लिए मांस को आग में भूनने लगे हैं। हडजा जनजाति के पुरुष शिकारी होते हैं। वे एडेनियम नामक झाड़ी के पत्तों से जहर प्राप्त करते है और उस जहर को अपने तीर और धनुष में लगाकर जानवरों का शिकार करते हैं जबकि हडजा महिलाएं और बच्चे जामुन, बाओबाब फल, कन्द , मूल जैसे खाद्य पदार्थो को इकट्ठा करती हैं।

शादी का बंधन नहीं ...

हडजा जनजाति के भीतर कोई नेता नहीं होता है। यहां सभी लोग समान होते हैं, न कि बड़े-छोटे। ये खानाबदोश लोग भोजन और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पैदल चलते रहते हैं। हडजा लोगो में शादी नाम की कोई प्रथा या परंपरा नहीं होती है, ये एक उन्मुक्त समाज है। ये रात में आग जलाकर कैंप फायर बनाते हैं और आग के चारों तरफ समुदाय की सभी औरतें और पुरुष सदस्य एक-दूसरे के आसपास बैठते हैं। वे एक-दूसरे को अपनी 'क्लिकिंग' भाषा में कहानी सुनाते हैं और बातचीत और नाच-गाना करते हैं।


मध्य रात्रि को जब ये कार्यक्रम खत्म हो जाता है, तो उसके बाद ये लोग उसी आग के चारों तरफ युगल जोड़े में सोते हैं और एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं। अगर किसी किसी जोड़े का संबंध लंबे समय के लिए हो जाता है तो वे अपनी इच्छा से पति-पत्नी के रूप में रहते हैं, लेकिन इसे किसी शादी नाम की परंपरा से नहीं जोड़ा जाता। इस समाज में चाहे पुरुष हो या कि औरत ये सभी अपनी अपनी पसंद से अपनी जोड़ियां हमेशा बदलते रहते हैं और हर रात आग के चारों तरफ बदल-बदल कर एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं।

पूर्णिमा पर होता है खास उत्सव....

हडजा जनजाति में पूर्णिमा की रात का बहुत धार्मिक महत्व होता है। पूर्णिमा की रात्रि को हडजा लोग एक विशेष धार्मिक आयोजन करते है जिसे 'एपेम' कहते हैं। इस आयोजन के दौरान पुरुष अपने पूर्वजों की तरह कपड़े पहनते हैं और अपने समुदाय कि महिलाओं और बच्चों के लिए नृत्य करते हैं। इसी एपेम कि धार्मिक प्रदर्शनी के दौरान इस समुदाय कि वे लड़कियां जिन्हें पहली बार महावारी हुई होती है, वे इस समुदाय के उस लड़के के साथ शारीरिक संबंध बनाती हैं जिसने पहले किसी औरत के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाया हो। इस समारोह में जंगली जानवरों का शिकार करने वाले पुरुषों को सम्मानित भी करते हैं। उन्हें अपनी पसंद की महिला से शारीरिक संबंध बनाने की आजादी भी होती है।
साभार....
https://navbharattimes.indiatimes.com/world/other-countries/all-you-need-to-know-about-hadza-tribe-of-africa-which-talks-in-whistling-and-lives-in-nest-like-houses/articleshow/80315866.cms?story=5


रविवार, 16 दिसंबर 2018

होरी में दिल चोरी....किरण मानु बरनवाल 'अंशु'


पति की व्यस्तता से परेशान पत्नी किट्टी पार्टी तो कभी महिला मंडल की सदस्य बन मॉडर्न होने का दंभ भरते हुए समय व्यतीत कर रही थी। बच्चे पहले ही पंख लगा घोंसले से फुर्र हो चुके थे। मॉडर्न पत्नी एकाएक इस जीवनशैली से ऊबने लगी। डूबते का सहारा ऊपरवाले, सो उसने भगवान की भक्ति में ख़ुद को लीन कर लिया। दिन भर भजन-कीर्तन पूजा-पाठ, आदर्श की बातें करते-करते दो चार बरस में ही सबसे कटने लगी।

   विदेशी बच्चे घर आने पर माताजी का हाल देख बेहाल हो गये। पिता तो अपनी दुनिया में मग्न सूटबूट में बुढापा छिपाये जवानी की कुलांचें भर रहे थे। मां बेचारी योगन बनी जा रही थी। माता जी को स्मार्ट बनाने के लिए स्मार्टफ़ोन का सहारा लिया और सिखा दिया स्मार्टफोन उपयोग करना। धीरे-धीरे माताजी फ़ेसबुक की दुनिया में पदार्पण करने लगी।
फ़ेसबुक पर प्रोफ़ाइल खोला, बेचारी वृद्धा का कोई भी मित्र बनने को तैयार नहीं हुआ। पत्नी ने फ़ेक आई डी बनाई , ख़ूबसूरत-सी कन्या से सबको इश्क होने लगा। लाईक कमेंट्स आने लगे। इसी सिलसिले में बांके जवान का निमंत्रण स्वीकार कर दिल हार बैठी। चैटिंग का क्रम जारी हुआ तो होली पर साक्षात मिलने पर आ अटका। वृद्धा परेशान बगीचे में उस कमनीय काया को कहां से ले जाये।

ख़ैर, किसी तरह दिल कड़ा कर "सो-कॉल्ड" प्रियतम को सच बताने की ठानी। जी-जान से पार्लर  से मेकअप करा चल पड़ी मायावी दुनिया के आशिक से मिलने। गाल गुलाल से भी ज़्यादा गुलाबी हो रहे थे।
अरररर....ये क्या? जिन्होनें पत्नी को कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले, वो फ़ेसबुकिया प्रेमिका के लिए तारे तोड़ने का वादा किया करता था। राहों पर फूल बिछाने को तत्पर आशिक तो ख़ुद का पति निकला। दोनों की आँखें टकराती हैं, होंठ कांप रहे थे।

एक दूसरे को धोखा देते हुए नयी ज़िंदगी के सपने धराशायी हो रहे थे। हाथों के तोते उड़ गये, महंगे उपहार मुंह चिढ़ा रहे थे।
जीवन फिर उसी बिंदु पर आ अटका जहाँ से पति-पत्नी चले थे।

-किरण मानु बरनवाल 'अंशु'